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News in Focus: लोकसभा सीटों को लेकर उत्तर बनाम दक्षिणी राज्य

*चर्चा में क्यों?-

दिल्ली के दिल में स्थित नई संसद में लोकसभा के करीब 860 सदस्यों को बैठने की व्यवस्था जानकारी के पश्चात नए परिसीमन की चर्चा जोरों पर है। इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि क्या लोकसभा और राज्यसभा सांसदों की संख्या बढ़ने वाली है? नए संसद बनने के बाद कई सवाल सत्ता के गलियारों में पूछा जा रहा है मसलन, क्या भारत में लोकसभा सीटों की संख्या तय करने के लिए नया परिसमीन होगा?उल्लेखनीय है कि 2021 की जनगणना को आधार वर्ष बनाकर 2026 में नया परिसीमन प्रस्तावित है। तेलंगाना के आईटी मंत्री 

भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के कार्यकारी अध्यक्ष केटी रामा राव ने बीते मंगलवार (30 मई) को कहा कि दक्षिणी राज्यों को अपनी जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने और विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए। राव ने कहा है कि यह दक्षिण में सभी राजनीतिक दलों को परिसीमन प्रक्रिया के अन्याय के खिलाफ पार्टी राजनीति से ऊपर उठकर अपनी आवाज उठाने का समय है।

* परिसीमन से दक्षिण भारत के राज्य चिंता में क्यों हैं?

 1960 -70 के दशक में केंद्र सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण करने पर ध्यान देना शुरू किया था। साऊथ के राज्यों ने इस मामले में उत्तरी राज्यों खासतौर पर हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले काफी आगे थे, लेकिन उनकी इस उपलब्धि के पीछे एक कड़वा सच भी था। वह यह कि जनसंख्या घटी, तो लोकसभा में उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले उनकी सीटें कम हो जाएंगी।

दक्षिणी राज्यों की इस शिकायत को दूर करने के लिए इंदिरा सरकार ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान संविधान में संशोधन करके नए परिसीमन पर 2002 तक रोक लगा दी। इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2026 तक रोक लगा दी। सरकार का मानना था कि 2026 तक सभी राज्यों में जनसंख्या बढ़ने की दर एक जैसी हो जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।

2011 की जनगणना के मुताबिक दक्षिण भारत के राज्यों की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 12.1% है, जबकि हिंदीभाषी राज्यों की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 21.6%, यानी हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले करीब 9.5% कम। इसलिए दक्षिण के राज्यों को लगता है कि प्रति 10 लाख आबादी वाला फॉर्मूला अपनाया गया, तो लोकसभा में उनकी मौजूदगी उत्तर भारत के राज्यों के मुकाबले घट जाएगी।  

*लोकसभा में सीटें बढ़ाने की क्यों उठ रही मांग?-:

सबसे बड़ी वजह जनसंख्या वृद्धि है. 1976 में जब लोकसभा का परिसीमन किया गया तो उस वक्त भारत की आबादी 50 करोड़ थी. यानी करीब 10 लाख पर एक सीट का फॉर्मूला उस वक्त सेट किया गया था. 

भारत की वर्तमान आबादी करीब 142 करोड़ है यानी 1976 से लगभग तीन गुना. जनसंख्या मुकाबले सीटों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है. आंकड़ों के नजरिए से देखा जाए तो वर्तमान में 17 लाख लोगों पर एक सांसद हैं.

यानी इसे उलट दिया जाए तो एक सांसद को जीतने के लिए 17 लाख लोगों के बीच जनसंपर्क बनाए रखना होगा. यह एक मुश्किल काम भी है. 2019 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा में 1000 सीट करने की मांग की थी. 

मुखर्जी ने इसके पक्ष में दलील देते हुए सवाल उठाया था कि आखिर कोई सासंद कितने लोगों की आबादी का प्रतिनिधित्व कर सकता है? उन्होंने कहा था कि भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों को देखें, तो मतदाताओं की संख्या उसके अनुपात में बहुत अधिक है.

भारत में साल 2002 में लोकसभा में सीटें बढ़ाने के लिए परिसीमन की कवायद की गई थी, लेकिन राजनीतिक विरोध के बाद उस वक्त इसे रोक दिया गया था. इतना ही नहीं, एक प्रस्ताव के जरिए 2026 तक के लिए परिसीमन को होल्ड कर दिया गया था.

1971 के बाद देश में 5 बार जनगणना हो चुकी है। 2021 वाली जनगणना अभी होनी है। आखिरी बार 2011 में जनगणना हुई थी, तब देश की आबादी करीब 121 करोड़ थी। यानी 1971 के मुकाबले 2.25 गुना ज्यादा, लेकिन लोकसभा की सीटें नहीं बढ़ीं। ऐसे में सवाल है कि 46 साल बाद भी हम उसी फॉर्मूले पर क्यों टिके हुए हैं?

2019 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा में 1000 सीटें करने की मांग की थी। रविवार को नई संसद के उद्घाटन के बाद पीएम मोदी ने भी कहा कि आने वाले समय में लोकसभा की सीटें बढ़ेंगीं। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश सिंह और BJP राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने भी परिसीमन का जिक्र किया। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि 2026 में परिसीमन किया जा सकता है।

*परिसीमन वर्ष 2026 तक स्थगित क्यों किया गया?

यद्यपि लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की संख्या में परिवर्तन पर रोक को वर्ष 2001 की जनगणना के बाद हटा दिया जाना था, लेकिन एक अन्य संशोधन द्वारा इसे वर्ष 2026 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।

इसे इस आधार पर उचित बताया गया कि वर्ष 2026 तक पूरे देश में एकसमान जनसंख्या वृद्धि दर हासिल हो जाएगी।

इस प्रकार अंतिम परिसीमन अभ्यास (जो जुलाई 2002 में शुरू होकर 31 मई, 2008 को संपन्न हुआ) वर्ष 2001 की जनगणना पर आधारित था और इसने केवल पहले से मौजूद लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमाओं को पुनः समायोजित किया तथा आरक्षित सीटों की संख्या को पुनः निर्धारित किया।

*भारत में लोकसभा की सीटें कैसे तय होती है?-:

केंद्र में सरकार बनाने के लिए लोकसभा की सीटें अहम होती है। लोकसभा में बहुमत के आधार पर ही सरकार बनाया जा सकता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व सिद्धांत के अनुसार लोकसभा में सीटों की संख्या संवैधानिक रूप से तय की जाती है। 

भारत में संविधान का अनुच्छेद-81 लोकसभा की संरचना को परिभाषित करता है। इसके मुताबिक जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों की संख्या तय की जा सकती है। इसके लिए चुनाव आयोग को परिसीमन कराना होगा।

परिसीमन का शाब्दिक अर्थ होता है- किसी देश या प्रांत में विधायी निकाय वाले निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया. 

डिलिमिटेशन एक्ट 2002 के मुताबिक परिसीमन की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या पूर्व जज कर सकते हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त या उनकी तरफ से नामित चुनाव आयुक्त भी इसके सदस्य होते हैं. 

परिसीमन आयोग विस्तृत अध्ययन के बाद 2 पहलुओं पर रिपोर्ट देगा- लोकसभा की सीटें कितनी होंगी? राज्यवार सीटों की संख्या क्या होगी?

अनुच्छेद 82 में कहा गया है कि हर 10 साल पर जब जनसंख्या का डेटा आ जाए, तो सीटों के आवांटन पर विचार किया जा सकता है. भारत में 1976 में जनसंख्या को आधार बनाकर ही लोकसभा में सीटों की संख्या तय की गई थी. 

*भारत में लोकसभा की सीटें कैसे तय होती है?-:

केंद्र में सरकार बनाने के लिए लोकसभा की सीटें अहम होती है। लोकसभा में बहुमत के आधार पर ही सरकार बनाया जा सकता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व सिद्धांत के अनुसार लोकसभा में सीटों की संख्या संवैधानिक रूप से तय की जाती है।

भारत में संविधान का अनुच्छेद-81 लोकसभा की संरचना को परिभाषित करता है। इसके मुताबिक जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों की संख्या तय की जा सकती है। इसके लिए चुनाव आयोग को परिसीमन कराना होगा।

परिसीमन का शाब्दिक अर्थ होता है- किसी देश या प्रांत में विधायी निकाय वाले निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया।

डिलिमिटेशन एक्ट 2002 के मुताबिक परिसीमन की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान या पूर्व जज कर सकते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त या उनकी तरफ से नामित चुनाव आयुक्त भी इसके सदस्य होते हैं।

परिसीमन आयोग विस्तृत अध्ययन के बाद 2 पहलुओं पर रिपोर्ट देगा- लोकसभा की सीटें कितनी होंगी? राज्यवार सीटों की संख्या क्या होगी?

अनुच्छेद 82 में कहा गया है कि हर 10 साल पर जब जनसंख्या का डेटा आ जाए, तो सीटों के आवांटन पर विचार किया जा सकता है. भारत में 1976 में जनसंख्या को आधार बनाकर ही लोकसभा में सीटों की संख्या तय की गई थी. 

1..परिसीमन क्या है?-:

परिसीमन  एक विधायी निकाय वाले देश या प्रांत में भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं या सीमाओं को स्थापित करने के कार्य या प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है।

परिसीमन का शाब्दिक अर्थ है निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का रेखांकन करना। परिसीमन का कार्य एक शक्तिशाली संस्था के हाथों में होती है, जिसे परिसीमन आयोग कहते हैं। भारत में चार बार ऐसे परिसीमन आयोग का गठन हो चुका है। 1952, 1963, 1973 और 2002। चारों बार चार अलग-अलग परिसीमन कानून के तहत यह कार्य संपन्न हुआ है।

भारत में इसके आदेश पर किसी अदालत में सवाल नहीं उठाया जा सकता। इसके आदेश को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में पेश किया जाता है, लेकिन उसपर किसी भी तरह के संशोधन की अनुमति नहीं है।

*चुनाव क्षेत्र परिसीमन का काम कब-कब हुआ है?-:

चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन का काम सबसे पहले 1950-51 में हुआ था। संविधान में उस समय यह निर्दिष्ट नहीं हुआ था कि यह काम कौन करेगा. इसलिए उस समय यह काम राष्ट्रपति ने चुनाव आयोग के सहयोग से किया था।

संविधान के निर्देशानुसार चुनाव क्षेत्रों का मानचित्र प्रत्येक जनगणना के उपरान्त फिर से बनाना आवश्यक है। अतः 1951 की जनगणना के पश्चात् 1952 में परिसीमन आयोग अधिनियम पारित हुआ. तब से लेकर 1952, 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन का काम हुआ। उल्लेखनीय है कि 1976 में आपातकाल के समय इंदिरा गाँधी ने संविधान में संशोधन करते हुए परिसीमन का कार्य 2001 तक रोक दिया था. इसके पीछे यह तर्क दिया था गया कि दक्षिण के राज्यों को शिकायत थी कि वे परिवार नियोजन के मोर्चे पर अच्छा काम कर रहे हैं और जनसंख्या को नियंत्रण करने में सहयोग कर रहे हैं जिसका फल उन्हें यह मिल रहा है कि उनके चुनाव क्षेत्रों की संख्या उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में कम होती है। अतः1981 और 1991 की जनगणनाओं के बाद परिसीमन का काम नहीं हुआ।

2001 की जनगणना के पश्चात् परिसीमन पर लगी हुई इस रोक को हट जाना चाहिए था. परन्तु फिर से एक संशोधन लाया गया और इस रोक को इस आधार पर 2026 तक बढ़ा दिया कि तब तक पूरे भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर एक जैसी हो जायेगी. इसी कारण 2001 की जनगणना के आधार पर किये गये परिसीमन कार्य (जुलाई 2002 – मई 31, 2018) में कोई ख़ास काम नहीं हुआ था. केवल लोकसभा और विधान सभाओं की वर्तमान चुनाव क्षेत्रों की सीमाओं को थोड़ा-बहुत इधर-उधर किया गया था और आरक्षित सीटों की संख्या में बदलाव लाया गया था

*आबादी और लोकसभा सीटों में क्या कनेक्शन है ?

जिन राज्यों में आबादी कम होगी, वहां सीटों की संख्या कम होगी। और जिन राज्यों में आबादी बढ़ी होगी, वहां सीटों की संख्या भी बढ़ेगी। इस बात को ऐसे समझिए, अभी तमिलनाडु की अनुमानित आबादी 7.68 करोड़ है और वहां लोकसभा की 39 सीटें हैं। जबकि, मध्य प्रदेश की आबादी 8.65 करोड़ है और यहां 29 लोकसभा सीटें हैं।परिसीमन होता है तो अभी की आबादी के हिसाब से मध्य प्रदेश में 86 लोकसभा सीटें हो जाएंगी और तमिलनाडु में 76 सीटें होंगी। सीटों की ये संख्या हर 10 लाख आबादी पर एक सांसद वाले फॉर्मूले के हिसाब से है। एक और उदाहरण देखिए केरल की अनुमानित आबादी 3.57 करोड़ है। अभी यहां 20 लोकसभा सीटें हैं। उत्तर प्रदेश की आबादी 23.56 करोड़ है और यहां 80 सांसद हैं। अगर वही 10 लाख वाला फॉर्मूला लागू किया जाए तो केरल में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़कर 35 या 36 होगी। जबकि, उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों की संख्या 235 या उससे ज्यादा भी हो सकती है।

इसी वजह से दक्षिणी राज्यों को आपत्ति है। उनका यही कहना है कि हमने आबादी नियंत्रित की, केंद्र की योजनाओं को लागू किया और उनके ही यहां लोकसभा सीटें कम हो जाएंगी। 

इसलिए दक्षिणी राज्य आबादी के हिसाब से सीटों के बंटवारे के विरोध में हैं। क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो उत्तर भारतीय राज्यों में सीटों की संख्या दोगुनी-तिगुनी या चौगुनी तक बढ़ जाएगी। जबकि, दक्षिण भारतीय राज्यों में सीटें बढ़ेंगी तो, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं।

वैसे तो हर 10 लाख की आबादी पर एक सांसद होना चाहिए. लेकिन भारत में ऐसा है नहीं. लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों को मिलाकर कुल 793 सांसद हैं. इस समय अनुमानित आबादी 138 करोड़ से ज्यादा है। लिहाजा, हर साढ़े 25 लाख आबादी पर एक सांसद है।

जबकि, देखा जाए तो आबादी के मामले में चीन और भारत में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। लेकिन वहां साढ़े चार लाख आबादी पर एक सांसद है।चीन में लगभग तीन हजार सांसद हैं।

अमेरिका में भी दोनों सदनों को मिलाकर कुल 535 सांसद हैं और वहां हर 7.33 लाख आबादी पर एक सांसद है। यूके में एक सांसद के हिस्से में एक लाख से भी कम आबादी है।

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