*चर्चा में क्यों?-:
संघ लोक सेवा आयोग द्वारा हाल ही में घोषित सिविल सेवा परीक्षा परिणाम में महिलाओं ने परचम लहराते हुए शीर्ष 10 में 6 स्थानों में जगह बनाकर इतिहास रच दिया।
इस तथ्य ने इसे और भी उल्लेखनीय बना दिया है कि इस बार चयनित महिलाओं की संख्या पिछले 70 वर्षों में किसी भी साल की तुलना में सबसे ज्यादा है। सार्वजनिक प्रशासन में लैंगिक समानता में सुधार स्वागत योग्य और उत्साहजनक है। इन आंकड़ों का महत्व इस तथ्य में है कि इस प्रतिष्ठित सेवा की ओर देश की उत्कृष्ट प्रतिभाएं आकर्षित होती है और इसीलिए इसमें प्रतिस्पर्धा भी उतनी ही कठिन होती है। यूपीएससी परीक्षाओं में महिलाओं का अच्छा प्रदर्शन बेहतर भविष्य की संभावनाएं जरूर खोलता है। ये चयनित महिला अधिकारी आने वाले समय में लाखों नवयुवतियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेंगी। कभी सिविल सेवाओं में पुरुषों की तुलना में पिछड़ रहीं महिलाएं आज कदम दर कदम सफलता की सीढि़यां चढ़ रही हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में महिलाओं ने तो नाम कमाया ही है अब प्रशासन में भी इनकी भूमिका तेजी से बढ़ी है। प्रशासनिक सेवाओं में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी यह बताती है कि महिला सशक्तिकरण सिर्फ एक विकल्प नहीं बल्कि एक आवश्यकता है।

*प्रशासनिक सेवाओं में महिलाओं की वर्तमान स्थिति एक पड़ताल-:
लगभग 2 दशक पहले तक यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा की चयन सूची में महिलाओं की भागीदारी महज 20 फीसदी थी। 2019 में ये 29 फीसदी तक पहुंची। इस साल ये 34 प्रतिशत रही है। इस बार 933 में से 320 महिलाएं हैं, जो करीब पिछले साल की तुलना में 9 फीसदी ज्यादा है। जाहिर है धीरे-धीरे इसमें बढ़ोतरी हो रही है। वैसे सिविल सेवा में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भारत ने लंबा सफर तय किया है। 73 साल पहले 17 जुलाई 1951 को भारत में महिलाओं को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) समेत किसी भी तरह की नागरिक सेवा में पात्र घोषित किया गया। नया कानून लागू होने के बाद अन्ना राजम मल्होत्रा भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1951 से 2020 के बीच प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश करने वाले कुल 11569 आइएएस अधिकारियों में महिलाओं की संख्या 1527 रही।*केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न लोक सेवा नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम है कि महिला उम्मीदवारों के लिये निःशुल्क आवेदन की सुविधा प्रदान की गई है। इसके अलावा, वर्ष 2022 में आईएएस में सचिव स्तर पर केवल 14 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत थीं।सभी भारतीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की साथ गणना करें तो भी केवल तीन महिलाएँ मुख्य सचिव के रूप में कार्यरत हैं।भारत में कभी कोई महिला कैबिनेट सचिव नहीं बनी। गृह, वित्त, रक्षा और कार्मिक मंत्रालय में भी कभी कोई महिला सचिव नहीं रही हैं।
*लोक प्रशासन में लैंगिक समानता क्यों जरूरी -:
2021 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के तहत लोक प्रशासन में लैंगिक समानता को लेकर जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में शीर्ष नेतृत्व में महिलाओं की हिस्सेदारी सिंगापुर (29%), ऑस्ट्रेलिया में (40%) और स्वीडन में (53%) की तुलना में काफी कम केवल 12 प्रतिशत ही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लैंगिक समानता एक समावेशी और जवाबदेह लोक प्रशासन के मूल में है। नौकरशाही और लोक प्रशासन में महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से सरकार के कामकाज में सुधार होता है, सेवाओं को विविध सार्वजनिक हितों के प्रति अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह बनाता है। इसके साथ ही प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता में इजाफा करता है। इसके अलावा लोक संगठनों के बीच आपसी भरोसा और विश्वास भी बढ़ता है। लिहाजा प्रशासनिक सेवा में लैंगिक असमानता को कमतर करना प्राथमिकता होनी चाहिए।
भारत में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से उनके सम्मान व गरिमा में भी वृद्धि हुई है। भारतीय नारी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर कहीं अधिक सबल होकर अपनी भूमिकाओं का निर्वहन कर रही है। हालांकि और अधिक अच्छे परिणामों के लिए पुरुष प्रधान समाज के माइंडसेट में भी बदलाव की आवश्यकता अभी महसूस की जा रही है। हमें यह याद रखना होगा कि निती निर्माण प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी के बगैर समाज के सभी वर्गों के प्रति संवेदनशील विधियों का निर्माण कर पाना लगभग असंभव है। ऐसे में यदि हम एक जीवन समाज का निर्माण करना है तो महिलाओं को सामाजिक राजनीतिक प्रशासनिक ताने-बाने में रचनात्मक स्थान देना होगा।
जिस राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति मजबूत एवं सम्मानजनक होती है वह राष्ट्र विकास के पायदान ऊपर तेजी से आगे बढ़ता है यह बात भारत पर भी लागू होती है।पूर्ण वैश्विक इतिहास पर गौर करें तो ज़ाहिर होता है कि समाज में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका ने राष्ट्रों की स्थिरता, प्रगति और दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में, भारत को एक ऐसी नौकरशाही की आवश्यकता है जो अधिक व्यापक और अधिक समावेशी हो।
* प्रशासन में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के कारण -:
– पिछले कुछ दशकों में पितृसत्तात्मक सोच में ऐसा माना जाता है कि महिलाओं को शादी के बाद सिविल सेवा छोड़ देनी चाहिए, लेकिन यह ऐसे पूर्वाग्रह के लोगों का समूह है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी को पसंद करने वाली महिलाओं की एक बड़ी संख्या को एक कैरिअर के विकल्प के रूप में पेश करता है।
– पिछले कुछ वर्षों में यह देखने में आया है कि सिविल सेवा अब भी महिलाओं के लिए एक लोकप्रिय कैरिअर का विकल्प बनकर उभर रहा है।यह कहने की जरूरत नहीं है कि यूपीएससी में कोई पक्षपात नहीं होता है। लेकिन हमने समय के साथ देखा है कि पुरुषों की तुलना में कम महिलाएं सिविल सेवाओं का विकल्प चुनती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, परीक्षा में शामिल होने वाले प्रत्येक 10 पुरुषों में से केवल तीन महिलाएं होती हैं। अगर सिविल सेवा को आबादी के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करना है, जिनमें से आधी महिलाएं हैं, तो सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व भी नौकरशाही के सभी स्तरों पर बढ़ना चाहिए, जो उच्चतम स्तर से शुरू होता है। जाति और लैंगिक असमानताएं जिन्हें सुधार या नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है लेकिन उचित समझ की कमी के कारण अक्सर अनदेखी की जाती है।
– प्रशासन में महिलाओं की कम भागीदारी का कारण महिलाओं की ऐतिहासिक रूप से शिक्षा तक सीमित पहुँच होना भी है, जिसने प्रशासन में भागीदारी की उनकी क्षमता को बाधित किया है। यद्यपि हाल के वर्षों में परिदृश्य में कुछ सुधार आया है।
– शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित उच्च शिक्षा पर नवीनतम अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार पुरुषों की 26.9% की तुलना में महिला आबादी के लिए उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 27.3% है। जो अच्छा संकेत है।

* श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी –
प्रशासन ही नहीं चिकित्सा क्षेत्र, उद्यमिता तथा सामाजिक सरोकारों के सभी क्षेत्रों में आज महिलाएं अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। आज की महिला आर्थिक रुप से स्वतंत्र और स्वावलंबी भी है। वह पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर आज नीति निर्माण में ही नहीं बल्कि देश की आर्थिक गतिविधियों में अपनी भागीदारी प्रदर्शित कर रही हैं।
भारत में महिलाओं का एक बड़ा प्रतिशत कामकाजी है। सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं है। अनेक उदाहरण है जिन से प्रभावित और प्रेरित होकर समाज का रूढ़िवादी वर्ग भी यह सोचने के लिए विवश है कि महिलाएं पुरुषों से किसी भी तरह से कम नहीं है।
मौजूदा समय में ऐसा कोई भी क्षेत्र शेष नहीं है, जहाँ महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज न की हो। पुरुष प्रधान माने जाने वाले सैन्य क्षेत्र में भी महिलाओं की भूमिका काफी सराहनीय रही है और उन्होंने अतीत के कई युद्ध अभियानों में हिस्सा लिया है। लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन में महिलाओं का प्रतिशत अपने देश में अभी भी 21 के आसपास ही है। इंटरनैशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत इस मामले में 131 देशों की सूची में 121वें नंबर पर है।
ऐसे में एक ऐसा देश जहां शिक्षा व राजनीति में महिलाओं को पुरुषों के बराबर अवसर दिए जाने की बात जोर-शोर से उठाई जा रही हो, वहां अर्थव्यवस्था में आधी आबादी के समान रूप से भाग न लेने के तथ्य को नजरअंदाज करने का अर्थ होगा कि हम नवाचार, उद्यमशीलता और उत्पादकता लाभ के मामले में बहुत कुछ खो रहे हैं। मानक श्रम बल भागीदारी दर की प्राप्ति के लक्ष्य से आगे बढ़ते हुए नीति-निर्माताओं को यह देखना चाहिए कि बेहतर रोजगार तक पहुंच अथवा बेहतर स्वरोजगार तक महिलाओं की पहुंच हो रही है या नहीं और देश के विकास के साथ उभरते नए श्रम बाजार अवसरों का लाभ वे उठा पा रही हैं या नहीं। आज समय की मांग है कि महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित कर इन्हें सक्षम बनाने वाले नीतिगत ढांचे का निर्माण किया जाए, जहां महिलाओं के समक्ष आने वाली लैंगिक बाधाओं के प्रति सक्रिय जागरूकता मौजूद हो। इस क्रम में लैंगिक असमानता दूर करने वाली प्रभावी नीतियों को विकसित किए जाने की आवश्यकता है।
**नारी सशक्तिकरण की मुहिम में सरकारी प्रयास -:
– महिलाओं को विधिक संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार द्वारा समय-समय पर अनेक कानूनों को लागू किया गया है। व्यापार निरोधक अधिनियम, अनैतिक व्यापार अधिनियम 1959 ,समान पारिश्रमिक अधिनियम 1986, वेश्यावृत्ति निवारण अधिनियम, 1986 ,सती निषेध अधिनियम 1986, दहेज निरोधक कानून 1961, घरेलू हिंसा में महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम 2005 ,राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990,कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम 2012।
– महिला अधिकारों को बेहतर ढंग से परिवर्तित कराने तथा उनकी सामाजिक एवं आर्थिक दशा में सुधार के लिए सुझाव देने के लिए वर्ष 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास माना जा सकता है।
– महिला अधिकार संरक्षण की दृष्टि से महत्व 73 वां एवं 74वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा पारित पंचायती राज अधिनियम अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 243घ तथा 243न द्वारा पंचायतों और नगर पालिकाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए हैं। इससे स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी में पर्याप्त वृद्धि हुई है जो एक सकारात्मक संकेत है।
– महिलाओं की प्रगति विकास तथा सशक्तिकरण सुनिश्चित करने के उद्देश्य से वर्ष 2001 में महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति का प्रतिपादन भविष्य की रूपरेखा के रूप में किया गया।
– नारी सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर हमारी सरकार द्वारा जेंडर बजटिंग की न सिर्फ पहल की गई है बल्कि इसे संस्थागत रूप प्रदान करने के उद्देश्य से वित्त मंत्रालय द्वारा वर्ष 2005 में सभी मंत्रालयों व विभागों में जेंडर बजटिंग प्रकोष्ठ के गठन का आदेश दिया गया।
*महिला स्वातंत्र्य को उच्छृंखलता कहना कितना तार्किक है?
महिलाओं की सार्वजनिक भूमिका में वृद्धि से इतर यह मत भी प्रचलित हो रहा है कि नारियों द्वारा उन को दी जाने वाली स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया जा रहा है। भारत में महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से बनाए गए दहेज निषेध अधिनियम जैसे सख्त कानूनों के दुरुपयोग के हजारों मामले देखे गए हैं तथा सशक्त महिलाओं द्वारा अपने से कमजोर महिलाओं व कुछ मामलों में तो पुरुषों पर भी अत्याचार किए जाने की घटना सामने आई है। ऐसे में नारियों को स्वतंत्रता प्रदान करने से आई प्रगतिशीलता के उच्छृंखलता में परिवर्तित होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। महिला सशक्तिकरण के उपायों का दुरुपयोग किया जाना एक चिंतनीय मुद्दा है तथा इस संदर्भ में अन्य समस्याएं भी विचारणीय है। महिलाओं से जुड़ी कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में कई कानून बनाए गए । पर इन कानूनों का प्रभावी ढंग से लागू न किए जाने के चलते दहेज प्रथा,बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, यौन शोषण जैसी समस्याओं का सामना महिला महिलाएं आज भी करती है। भारत में पिछले कुछ दशकों में लिंगानुपात में वृद्धि हुई है परंतु शिशु लिंगानुपात में उत्तरोत्तर गिरावट ही होती जा रही है। शिक्षा का प्रसार हो जाने के बाद शिक्षित परिवार भी दहेज के लोभ से मुक्त नहीं हो पाए हैं। इसके साथ-साथ भारत में महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा, तीन तलाक, हलाला जैसी घटनाएं आज भी प्रचलन में है। इतनी समस्याओं के उपस्थित होने के बाद महिला स्वातंत्र्य को उच्छृंखलता की संज्ञा देना अतार्किक होगा।
*राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भूमिका-
भारत में ऐतिहासिक रूप से महिलाओं का राष्ट्र निर्माण में कार्य करना एवं कई बार तो राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरी तरह अपने हाथ में ले लेना एक परंपरा के रूप में रहा है। हड़प्पा संस्कृति व सातवाहन राजवंशों में स्त्रियों को सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में विशेष स्थान प्राप्त था। मध्यकाल में दिल्ली सल्तनत की सुल्तान के रूप में रजिया सुल्तान ने सल्तनत का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौर में जब भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 857 में विद्रोह किया इसमें भी महिलाओं ने अपने अपने स्तर पर योगदान देकर राष्ट्र की संकल्पना साकार करने का प्रयास किया। महारानी लक्ष्मीबाई,वीरांगना झलकारी बाई,बेगम हजरत महल इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों की बराबरी में स्वतंत्रता के पावन कार्य में अपना अमूल्य योगदान दिया। इसके अलावा राष्ट्रीय राजनीति में भी एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, राजकुमारी अमृत कौर जैसी महिलाएं महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन कर रही थी । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दौर में महिलाओं की राष्ट्र निर्माण में भूमिका और सशक्त होकर उभरी। गणतंत्र बनने के 16 वें साल में ही एक महिला ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, परमाणु परीक्षण बांग्लादेश मुक्ति, गरीबी हटाओ का नारा दिया। गांधी के अलावा वंदना शिवा, किरण मजूमदार शॉ, जस्टिस फातिमा, मेरी कॉम, मेधा पाटकर व अरुणा राय जैसी महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अमूल्य योगदान कर भारत को बेहतर राष्ट्र बनने का मार्ग प्रशस्त किया है।
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